राजेश सिंह क्षत्री
मेरे एक करीबी रिश्तेदार हैं, आमदनी यही कोई 35 हजार मासिक है। उस महाशय को हमेशा यह लगता रहा है कि मेरे पास बहुत पैसे होंगे, कारण मैं पत्रकार जो हूं। आज से कोई 11 साल पहले पत्रकारिता के नशे में चूर जब मैंने अपने अधिवक्ता के व्यवसाय से पूरी तरह से किनारा करते हुए इलेक्ट्रानिक मीडिया सहारा समय एमपी/सीजी का दामन थामा तब यह मेरी एक वर्ष की आमदनी रहती थी। आज भी बहुत सारे अवसर ऐसे होते हैं जब जेब में एक फूटी कौड़ी नहीं होती और समाचार के कव्हरेज में लगने वाले खर्च को छोड़ दिया जाए तो बहुत सारे अर्जेंट कार्यो को भी मुझे किसी अन्य दिन के लिए अनिश्चित काल के लिए तब तक टालना होता है जब तक मेरे पास उस कार्य को करने के लिए पैसे नहीं आ जाए।
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सिर्फ मेरी ही नहीं यह मुझ जैसे अधिकांश पत्रकारों की कहानी है, क्योंकि अधिकांश पत्रकारों की जिंदगी एक जैसी होती है। किसी को पत्रकारिता का नशा होता है तो पत्रकारिता किसी का धर्म होता है, कोई इसे पूजा समझकर करता है। स्थिति ऐसी होती है कि हम अपनी मजबूरी किसी अन्य को बता भी नहीं सकते। जो अपेक्षा मेरे रिश्तेदार को मुझसे रही वह आपके रिश्तेदार को भी आपसे रहती है।
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जब वह आपके सामने कहता है कि आपके पास तो बहुत पैसा होगा, आपकी तो बात ही निराली है, आप से तो सभी डरते होंगे। आपका तो मजा ही मजा है, आप तो कहीं भी बिंदास आ जा सकते हैं, आपको रोकने वाला कौन है भला। तब उनकी उम्मीदों और अपेक्षाओं को देखकर आपको भी ऐसा महसूस होता होगा कि खींचकर उसे एक झापड़ लगाकर चुप करा दे, या फिर चीख-चीखकर उससे कहे, मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है, मैं पत्रकार जो ठहरा जो अपनी बेबसी को न तो किसी को बता सकता है और न ही सुना सकता है।
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जो दुनिया की बातों को अपनी कलम के ताकत के माध्यम से सामने लाता है लेकिन अपनी बेबसी की पीड़ा किसी को नहीं कह पाता। हां, हम पत्रकार हैं, पर पैसे ... ये कलम की जो ताकत है वह दूसरों की जेब में रहने वाले लाख-दो लाख से ज्यादा है।
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Paise to bahut honge patrakar jo hai |
मेरे एक करीबी रिश्तेदार हैं, आमदनी यही कोई 35 हजार मासिक है। उस महाशय को हमेशा यह लगता रहा है कि मेरे पास बहुत पैसे होंगे, कारण मैं पत्रकार जो हूं। आज से कोई 11 साल पहले पत्रकारिता के नशे में चूर जब मैंने अपने अधिवक्ता के व्यवसाय से पूरी तरह से किनारा करते हुए इलेक्ट्रानिक मीडिया सहारा समय एमपी/सीजी का दामन थामा तब यह मेरी एक वर्ष की आमदनी रहती थी। आज भी बहुत सारे अवसर ऐसे होते हैं जब जेब में एक फूटी कौड़ी नहीं होती और समाचार के कव्हरेज में लगने वाले खर्च को छोड़ दिया जाए तो बहुत सारे अर्जेंट कार्यो को भी मुझे किसी अन्य दिन के लिए अनिश्चित काल के लिए तब तक टालना होता है जब तक मेरे पास उस कार्य को करने के लिए पैसे नहीं आ जाए।
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सिर्फ मेरी ही नहीं यह मुझ जैसे अधिकांश पत्रकारों की कहानी है, क्योंकि अधिकांश पत्रकारों की जिंदगी एक जैसी होती है। किसी को पत्रकारिता का नशा होता है तो पत्रकारिता किसी का धर्म होता है, कोई इसे पूजा समझकर करता है। स्थिति ऐसी होती है कि हम अपनी मजबूरी किसी अन्य को बता भी नहीं सकते। जो अपेक्षा मेरे रिश्तेदार को मुझसे रही वह आपके रिश्तेदार को भी आपसे रहती है।
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जब वह आपके सामने कहता है कि आपके पास तो बहुत पैसा होगा, आपकी तो बात ही निराली है, आप से तो सभी डरते होंगे। आपका तो मजा ही मजा है, आप तो कहीं भी बिंदास आ जा सकते हैं, आपको रोकने वाला कौन है भला। तब उनकी उम्मीदों और अपेक्षाओं को देखकर आपको भी ऐसा महसूस होता होगा कि खींचकर उसे एक झापड़ लगाकर चुप करा दे, या फिर चीख-चीखकर उससे कहे, मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है, मैं पत्रकार जो ठहरा जो अपनी बेबसी को न तो किसी को बता सकता है और न ही सुना सकता है।
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जो दुनिया की बातों को अपनी कलम के ताकत के माध्यम से सामने लाता है लेकिन अपनी बेबसी की पीड़ा किसी को नहीं कह पाता। हां, हम पत्रकार हैं, पर पैसे ... ये कलम की जो ताकत है वह दूसरों की जेब में रहने वाले लाख-दो लाख से ज्यादा है।