कहानीराजेश सिंह क्षत्री
शिव मंदिर, नहर किनारे,
वार्ड नं. 8 जांजगीर छ.ग.राम राम श्ंाकर काका! गांव पंहुचते ही सामने से शंकर काका को आते हुए देख मैंने कहा.राम राम ठाकुर साहब, इस बार बहुत दिन बाद पधारे.हां, काका! मेरा काम ही कुछ ऐसा है कि वक्त ही नहीं मिल पाता, फिर भी इस बार लम्बी छुट्टी लेकर आया हूं. घर में सब कुशल तो है ना ?सब ठीक है बेटा, पारो का ब्याह लग गया है, अगले महीने ही शादी है. बस, उसी की तैयारी में जुटा हूं.पर काका ! अभी पारो की उम्र ही कितनी है, ले देकर सोलह बरस की ही तो हुई है, अभी से ...?लडका मेट्रिक पास है, पांच एकड़ जमीन है, पड़ी रहेगी कमाती खाती वहां ..., अच्छा घर देखा इसलिए ना नहीं कर सका. इतना कहते-कहते शंकर काका आगे निगल गए और मेरी आंखों में सोलह बरस की भोली-भाली और मासूम पारो का चेहरा घुम आया जो धीरे-धीरे और छोटी हो गई ... बिल्कुल छोटी.तब मुझे गांव जाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था, वहां मेरा कोई दोस्त नहीं था इस कारण मुृझे गांव के नाम से ही चिढ़ उत्पन्न हो जाती थी, लेकिन फिर भी गर्मी की छुट्टियों में मुझे गांव जाना पड़ गया.तेरह बरस की उम्र घर में बैठकर बड़े बुजुर्गो की बातें सुनने की तो नहीं होती सो मैं अकेले ही गांव की सैर करने निकल गया. अभी घर से कुछ कदम ही चल पाया था कि देखा, एक लडक़ी अकेली धूल खेलने में मस्त है. गोरा मुखड़ा, चचंल आंखें, उमर लगभग तीन बरस. सर से लेकर पांव तक धूल में सनी हुई उस लडक़ी में न जाने ऐसा कौन-सा आकर्षण था कि मैं उसके पास चला आया.
सुनो, तुम्हारा नाम क्या है ? मेरे पूछने पर वह धूल हाथ में लिए उठ खड़ी हुई व सिर से पांव तक मुझे देखने के बाद मु़ट्ठी बंद किए धूल से सने हाथ को अपने गाल में टिका सोचने के से अंदाज में अत्यंत ही मासूमियत के साथ तुतलाते हुए बोली - पालो औल तुल्ता !दुर्गा ... ? उसके दूसरे नाम को न समझ मैंने दोहराते हुए पूछा.दुल्दा नहीं तुल्ता ... तुल्ता ...उसके मुख से अपना नाम कुल्टा सुन मुझे आश्चर्य हुआ, मैंने अविश्वासपूर्वक फिर पूछा कुल्टा ....?हां, मां जब जुच्छे में होती है तो वही तो तहती है मुझे, ए तुल्ता ! तंहा मल दई.मां झूठ कहती है, तुम तो परियों की राजकुमारी की तरह सुन्दर हो, तुम्हारा नाम तो रानी होना चाहिए.थीत है, तुम्हें लानी अच्छा लदता है तो तुम लानी पुताल लिया तलो. तुम तौन हो ... ?मैं ...! मैंने कुछ सोचकर कहा, मैं तुम्हारा भइया ...!भ...इ...या... उसने हंसते हुए कहा - भइया ऐसे थोली होते हैं, वे तो दंदे होते हैं, बहुत मालते हैं, मेला भइया तो मुजे बहुत मालता है, तुम भइया नहीं हो छकते, तुम तो तितने अच्छे हो ...ठीक है, तुम्हें जो अच्छा लगे वही पुकार लो ...मेला तोई दोत्त नहीं है, मैं तुम्हें दोत्त तहतर पुतालूं ? उसने बड़ी मासूमियत से पूछा.मेरा भी यहां कोई दोस्त नहीं है रानी, ठीक है आज से हम दोनों पक्के दोस्त हुए.दोत्त, तुम मेले छाथ थेलोदे.हां... इतना कह मैं भी अपने नन्हें दोस्त के साथ धूल खेलने में व्यस्त हो गया.रानी से दोस्ती क्या हुई, गांव के बारे में मेरी मानसिकता ही बदल गई. पहले जो गांव मुझे फूटी आंख नहीं सुहाता था वही अब बड़ा प्यारा नजर आने लगा. अब तो मेरी तमाम छुट्टियां गांव में ही व्यतीत होने लगी.समय व्यतीत होता गया, पारो भी अब बारह बरस की हो गई थी, लेकिन उसकी मासूमियत, उसकी चंचलता में कोई कमी नहीं आई थी. उसकी मासूमियत देख मुझे लगता, इसको तो कभी भी कोई भी बुद्धु बनाकर जा सकता है. उसमें भी उसका कोई दोष नहीं था, दोष था तो सिर्फ उसकी निरक्षरता का. मेरे लाख समझाने के बाद भी शंकर काका ने पारो को पढ़ाने के बजाए अनपढ़ रखना ही उचित समझा.अपने निरक्षर होने का उसे जरा भी अफसोस नहीं था, न ही वह इसके लिए अपने माता-पिता को दोष देना चाहती थी. तभी तो जब कभी मैं उसके ना पढ़ पाने के कारण शंकर काका को बुरा-भला कहता तो वह किसी बुजुर्ग की भांति मुझे बीच में ही टोक उठती, इसमें बाबा का क्या दोष? पढ़ लिख कर मैं करती भी क्या ... वैसे भी मैं जहां भी रहूं चौका-चूल्हा ही तो करना है, पढऩे लिखने से तो भइया को फायदा है. इस कारण तो बाबूजी उसे पढ़ा रहे हैं, ताकि वह पढ़ लिख कर कोई काम करे व घर की देखभाल करे.उसका जवाब सुन हार मुझे ही माननी पड़ती और मैं चुप हो जाता. पहले जहां मैं गर्मी की छुट्टी में भी गांव जाने के नाम से जी चुराता था वहीं अब रविवार की छुट्टी भी गांव में व्यतीत होने लगा. ऐसे ही एक सुबह जब मैं गांव पंहुचा सामने से मुझे पारो आते दिखाई दी. पूछने पर पता चला वह मंदिर गई थी. मैं पूछ बैठा, रानी, तुम रोज सुबह मंदिर जाती हो, आखिर तुम भगवान से मांगती क्या हो ... ?
यही कि भगवान मेरे दोस्त को अच्छे नम्बरों से पास कर देना, मैं तुम्हारे सर पर पांच नारियल फोड़ूंगी.उसके भोलेपन पर मुझे हंसी आ गई. मैंने फिर से पूछा, सर पर ...हां ... !पगली कहीं की ... भगवान के सर पर नारियल फोड़ेगी तो भगवान की मूर्ति टूट नहीं जाएगा, इससे तो भगवान खुश होने की बजाय उल्टा तुमसे नाराज होकर मुझे फेल कर देंगे.अरे हां ! मैंने तो ये सोचा ही नहीं था, भगवान मुझे माफ कर देना. मैं तुम्हारे सर पर पांच नारियल फोड़ूंगी नहीं बल्कि तुम्हारे चरणों में पांच नारियल चढ़ाऊंगी लेकिन मेरे दोस्त को अच्छे नम्बरों से पास जरूर कर देना. वही पर हाथ जोड़ भगवान को स्मरण करते हुए वह बोली.वैसे भी अपनी पढ़ाई की जितनी फिक्र खुद मुझे नहीं थी उससे अधिक चिंता पारो करती थी तभी तो जब कभी भी पढ़ाई के मौसम में मैं उसके साथ खेलने लग जाता था वह कहती, दोस्त खेलना बंद करो और चुपचाप पढ़ाई करो, जाओ न दोस्त .. जाओ न... तुम्हें मेरी कसम है, देखो तुम पढ़ाई नहीं करोगे तो मैं तुमसे कभी बात नहीं करूंगी ... ? इतना कहते-कहते उसका गला भर आता था और मुझे मजबूरन पढऩा पड़ता था.उसकी नि:स्वार्थ, उन्मुक्त व्यवहार देख मैं सोचता, ये लडक़ी शादी के बाद अपने ससुराल में किस तरह रहेगी, वैसे भी आज के स्वार्थ से भरे दुनिया में इतना भोलापन भी ठीक नहीं ... शादी के बाद उसके ससुराल वाले उसकी मासूमियत का गलत उपयोग न करे, यही फिक्र तो रहती थी मुझे उसकी और आज जब शंकर काका ने उसकी शादी लगने की बात कही मेरी चिंता थोड़ा और बढ़ गई, तभी मुझे सामने से पारो आती दिखाई दी. पास आकर उसने पूछा, कैसे हो दोस्त ... ?ठीक हूं रानी ... ! मैं बस इतना ही कह सका और मेरी आंखे नम हो गई.
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