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कहानी : पागल

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राजेश सिंह क्षत्री 

 

एक तो जेठ का महीना, ऊपर से तपती दोपहरी, स्टेशन में खास चहल पहल नहीं थी, कोई एक्सप्रेस ट्रेन प्लेटफार्म से छूट रही थी, उसके दो-चार डिब्बों को आंखों के सामने से गुजरते हुए देखते रहा उसके बाद पता नहीं मन में क्या सूझा दौड़कर मैं भी एक डिब्बे में चढ़ गया। वो शायद जनरल डिब्बा था। भीतर यात्रियों की अच्छी खासी भीड़ भरे हुए थी। मैं जैसे तैसे शौचालय के दरवाजे तक पंहुचा, फिर वहीं एक कोने में दुबककर बैठ गया। ये ट्रेन कहां जा रही थी, मुझे पता नहीं था। मैं कहां जा रहा था इसकी भी खबर नहीं थी। कुछ दिनों से मैं तो बस भाग रहा था, जैसे किसी की यादों से पीछा छुड़ा रहा हूं। घर से कुछ सामान हाथ में लेकर निकलता तो मां जरूर पूछती कहां जा रहे हो, मैं मां को क्या बताता इसलिए यूं ही चुपके से बिना कुछ लिए खाली हाथ चला आया था। कभी इस शहर तो कभी उस शहर, कभी ट्रेन से तो कभी पैदल बस भागे जा रहा था। 

 

जेब में रखे चंद पैसे कब के खर्च हो चुके थे। सप्ताह भर में पहने हुए कपड़े भी मैले हो चुके थे वहीं चेहरे पर भी दाढ़ी कुछ घनी हो गई थी, मेरी शक्ल-सूरत ऐसी हो चली थी कि पूरे ट्रेन में यही एक जगह मेरे लिए उचित जान पड़ती थी। 

 

मुझे एक बार फिर स्नेहा की याद आने लगी। घर में रहता तो मोबाइल निकाल उसकी फोटो को निहार लेता लेकिन आने से पहले अपने मोबाइल को भी मैं घर पर ही छोड़ आया था, साथ ही मोबाइल में डली उसकी फोटो को भी डिलिट कर आया था। आंखें बंद करते ही स्नेहा का गुस्से से तमतमाया हुआ चेहरा एक बार फिर सामने आ गया, वो जैसे डांटते हुए कह रही थी, मैं उतनी भी सीधी नहीं हूं न जितना तुम समझते हो, किसी दिन चंडी का रूप दिखाऊंगी तो सब समझ आ जाएगा! मैनें झट से आंखे खोल दी। 

 

... पर मेरी बातें स्नेहा को इतनी चुभती क्यों थी, जबकि मैंने तो हमेशा उसका भला ही चाहा ? कभी मां की तरह उसके दर्द को समझने की कोशिश की तो कभी बाबुल की तरह उसे बिना बताए उसके लिए खुंशियां बटोरता रहा, कभी उसका बड़ा भाई बन मजबूती से उसके पक्ष में खड़ा नजर आया।

 

स्नेहा से मेरी पहचान बहुत ज्यादा पुरानी भी नहीं थी, लगभग चार साल पहले ही तो वह मेरे पड़ोस में अपने भाई प्रेम और मां के साथ रहने के लिए आई थी। कच्चा खपरैल का घर होने और दोनों घर का ऊपरी हिस्सा खप्पर से जुड़े होने की वजह से उस घर में कोई आह भी भरता तो मेरे घर से सुनाई देता। जब कभी भी स्नेहा अपनी मां या फिर सहेली के साथ घर से बाहर निकलती एकदम प्रसन्न नजर आती, घर में, आंगन में, गली में, पेड़ के नीचे खड़े हो वो खूब सेल्फी लेती। मैं भी परदे की ओट से छिपकर उसे चुपचाप देखा करता। ऐसा लगता मानों घूमना और फोटो खिंचाना ये दो चीजेंं ही स्नेहा को सबसे ज्यादा पसंद है। 

 

 ऊपर से वो जितना उन्मुक्त, आकाश में उड़ती किसी पंछी की तरह आजाद नजर आती, घर के भीतर उस पर उतनी ही बंदिशें लागू रहती। जब कभी भी वह कहीं जाने को कहती हमेशा उसका भाई प्रेम आड़े आ जाता। यहां नहीं जाना, ये नहीं करना, ऐसा नहीं पहनना। हद तो तब हो जाती जब अकेले तो क्या किसी के साथ जाने पर भी उस पर पाबंदियां लगा दी जाती। ऐसा महसूस होता मानों उसे स्नेहा पर भरोसा ही न हो, मानों स्नेहा कहीं बाहर जाएगी तो वह अपने परिवार का नाक कटा देगी, या फिर किसी के साथ वहीं से रफू चक्कर हो जाएगी। 

 जब भी मैं स्नेहा का मासूम चेहरा देखता तो दिमाग में उसके आस पास एक और धूंधली सी तस्वीर बन जाती जैसे वह कोई मंदिर हो और स्नेहा उस मंदिर में विराजमान देवी। उसे देखते हुए ऐसे लगता जैसे मैं अपनी पलके ही न झपकाऊं, जैसे मेरे पलक झपकाते ही मंदिर की वो देवी वहां से कहीं अदृश्य न हो जाए।

 उधर स्नेहा की आंखों से आंसू टपकते इधर दीवार के इस पार वह मेरे हृदय की गहराइयों को भेदते चले जाते। मेरे कानों से टकराती स्नेहा की अनकही सिसकियां चीख चीखकर कहती कि मैं उसकी कुछ मदद करूं लेकिन किस तरह यही समझ नहीं आता। स्नेहा जब तक हंसती-चहकती रहती मैं भी अपने आपको प्रसन्न महसूस करता, जैसे ही वह किसी बात को लेकर परेशान होती मैं भी मायूस हो जाता। 

 

 कभी कभी तो मैं अपने आपको उसके इतना करीब पाता लगता मानों हम दोनों जुड़वा हों, उसके दिल पर कोई चोट लगती तो दर्द मुझे महसूस हो रहा होता। कभी लगता मानों किसी जनम में उससे बहुत करीब का रिश्ता रहा हो मेरा तभी तो उसकी छोटी सी परेशानियां भी मुझे पहाड़ नजर आती। दिल हर समय बस उसकी खुशियां ही चाहता। 

 

जब भी मैं स्नेहा का मासूम चेहरा देखता तो दिमाग में उसके आस पास एक और धूंधली सी तस्वीर बन जाती जैसे वह कोई मंदिर हो और स्नेहा उस मंदिर में विराजमान देवी। उसे देखते हुए ऐसे लगता जैसे मैं अपनी पलके ही न झपकाऊं, जैसे मेरे पलक झपकाते ही मंदिर की वो देवी वहां से कहीं अदृश्य न हो जाए। 

 

स्नेहा भी कई बार मुझे अपने को यूं ही घूरता हुआ देख चुकी थी। उसे मेरा इस तरह देखना बिल्कुल भी पसंद नहीं था इसीलिए जब कभी भी मैं उससे बात करने की कोशिश करता हर बार उसका मूड बिगड़ जाता। वह स्पष्ट शब्दों में कहती मेरी बातों में उसे कोई इन्ट्रेस्ट नहीं है मैं उससे दूर ही रहा करूं। मैं हर बार उसे सफाई देने की कोशिश करता कि उसका चेहरा तो मुझे किसी देवी की तरह लगता है और देवी से प्यार नहीं किया जाता उसकी पूजा की जाती है, पर मेरी बातें शायद उसके समझ नहीं आती थी तभी तो हर बार मुझे वह आईना दिखाने की कोशिश करती। 

 

मैं स्नेहा की यादोंं में खोया ही था कि बाहर से आती तेज आवाज ने मेरा ध्यान भंग कर दिया। ट्रेन स्टेशन पर रूकी हुई थी, शायद कोई बड़ा स्टेशन था। मैंने थोड़ा सा सरककर बाहर गेट से झांकने की कोशिश की तो सीध में ही बाटल से कुछ लोग पानी भरते हुए नजर आए। मैं भी ट्रेन से उतरकर उनके पीछे लाइन में लग गया। तीन-चार अंजुरी पानी पी और मैं अपने स्थान पर वापस लौट आया। आकर देखा तो वहां चंद सिक्के बिखरे पड़े थे। मेरी जेब में तो पहले ही कोई पैसा नहीं बचा था फिर क्या ये किसी की जेब से गिर गया है, या फिर मैं जब आंखें बंद कर स्नेहा के विचारों में गुम था किसी ने भिखारी समझ डाल दिए हैं। मैंने ऊपरवाले को याद किया उसकी कृपा अब भी मुझ पर बनी हुई थी, वह मुझे भूख से नहीं मारना चाहता था। मैंने सिक्के हथेली में रखे और वापस वहीं उसी कोने में बैठ गया। 

 मैं हर बार उसे सफाई देने की कोशिश करता कि उसका चेहरा तो मुझे किसी देवी की तरह लगता है और देवी से प्यार नहीं किया जाता उसकी पूजा की जाती है, पर मेरी बातें शायद उसके समझ नहीं आती थी

 शाम ढलने को थे। ट्रेन एक बार फिर गति पकड़ चुकी थी। स्नेहा से ध्यान हटाने मैंने मां को याद किया। मेरे इस तरह बिना बताए घर से निकल आने से मां कितना परेशान होगी, शायद उसकी तबियत भी बिगड़ जाए...! वैसे भी मुझे लेकर कितना परेशान रहती है वह। तो क्या मैं वापस लौट जाऊं, लेकिन वहां पड़ोस में स्नेहा भी तो होगी न ? मुझे वापस देखते ही उसके दिल पर क्या बितेगी ? शायद मेरा यह चेहरा उसे तकलीफ देता है ? शायद मेरी बातें भी उसे तकलीफ देती है ? मैं खुद जिसकी खुशियों के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूं मैं उसकी तकलीफ का कारण कैसे बनूं ...? नहीं, मैं ऐसा कोई भी काम नहीं करूंगा जिससे स्नेहा को तकलीफ हो। समय बड़े से बड़ा घाव भर देता है, मां भी शायद कुछ दिनों में मेरे बिना जीने की आदत डाल लेगी। धीरे से ही सही स्नेहा भी मुझे भूल जाएगी तब फिर उसे तकलीफ देने वाला कोई नहीं होगा।

 

 ... पर मेरी बातें स्नेहा को इतनी चुभती क्यों थी, जबकि मैंने तो हमेशा उसका भला ही चाहा ? कभी मां की तरह उसके दर्द को समझने की कोशिश की तो कभी बाबुल की तरह उसे बिना बताए उसके लिए खुंशियां बटोरता रहा, कभी उसका बड़ा भाई बन मजबूती से उसके पक्ष में खड़ा नजर आया। किसी कार्यक्रम में चुपके से मोबाईल से खींचे उसकी तस्वीर को निहारते जब कभी उस पर प्यार आता था तब भी स्नेहवश मैंने उसके माथे को ही चुमने की कोशिश की। उस दिन भी जब मैं उसे क्या पसंद है और क्या नहीं यह बताने की कोशिश कर रहा था तो जैसे उसे बताना चाह रहा था कि देखो तुम्हें कितना करीब से जानता हूं मैं, बिल्कुल तुम्हारी मां की तरह, पर मेरी बातों में उसे मां, भाई या बाबुल का प्यार क्यों नजर आता...? आखिर मैं भी तो एक लड़का हूं और यहां युवा लड़के और युवा लड़कियों में सिर्फ एक ही रिश्ता होता है, प्यार का रिश्ता...!

 

 कितना पागल था मैं, जिस जमाने में लोग औरत के तन पर मरते हैं मैं उसे अंतस की गहराईयों से महसूस करने की कोशिश करता। उससे प्यार नहीं उसकी पूजा करने का मन करता। यहां तो स्नेहा का भाई प्रेम भी किसी लड़की को पहली नजर में देखते ही उसके कमर से लेकर फिगर तक के नाप बता सकता था और यहां मैं..., मेरी नजर कभी स्नेहा के चेहरे से हटकर कहीं और गई ही नहीं। ठीक करती थी स्नेहा, मुझ जैसे पागल के साथ कोई और कर भी क्या सकता है। 

 सच कहूं तो मुझे उसका गुस्सा बिल्कुल भी बुरा नहीं लग रहा था बल्कि यह सोचकर मैं खुश था कि चलो उसने मुझे अपना तो माना क्योंकि लोग अपनों पर ही तो नाराज होते हैं, पर गुस्सा मुझे अपने आप पर आ रहा था कि क्यों मैंने उसके दिल को इतनी तकलीफ पंहुचाई कि ...!

 स्नेहा से ध्यान हटाने मैं अपने मोहल्ले के दोस्तों को याद करने लगा। तब एक साथ मेरे दो दोस्तों को प्यार हो गया था। पहला दोस्त अपनी प्रेमिका को हृदय की गहराइयों से चाहता था। उसने उसे प्रेमपत्र भी लिखा तो अपने खून से, उस प्रेमपत्र को पढऩा तो क्या खोलकर देखना भी लड़की को गवारा नहीं था। प्रेमपत्र देखते ही फाड़कर लड़की ने मेरे दोस्त के चेहरे पर दे मारी। कालेज से घर जाती लड़की को रोककर मेरे दोस्त ने कुछ कहना चाहा तो लड़की की आंखों से आंसू बहने लगे। लड़की को रोता देख मेरा दोस्त भी रोने लगा, कुछ दिनों बाद लड़की कहीं बाहर चली गई, मेरा दोस्त उस लड़की को देखने वहां भी जाता, दूर से निहारकर चला आता। उससे इतना प्रेम किया कि उस घटना को बीस साल बीत गए फिर भी आज तक उसने शादी नहीं की। उस लड़की को कभी उसके दिल से किए सच्चे प्यार का अहसास ही नहीं हुआ। दूसरे दोस्त ने एक लड़की को शाम को उसके ही घर के पीछे मिलने के लिए बुलाया। लड़की जैसे ही आयी बिना कुछ कहे वह उसके चेहरे को चुमने और उरोजों से खेलने लगा। लड़के के इस व्यवहार से हतप्रभ लड़की किसी तरह से अपने आप को छुड़ाकर गाली देते वहां से भाग खड़ी हुई। दो तीन दिनों तक कॉलेज में दिखने पर दोस्त ही उस लड़की को इग्रोर करने लगा। जिसके बाद लड़की ही आगे आकर माफी मांगी, तब से लेकर लड़की के ससुराल जाते तक दोनों एक दूसरे के प्रेम में गोते लगाते रहे। शायद आज वक्त ही ऐसा है, यहां किसी को पूजना लोगों को पागलपन लगता है। मेरी आंखों में एक बार फिर स्नेहा का चेहरा घुमने लगा। 

 

 उस दिन भी कुछ विशेष बातें नहीं हुई थी। मां को स्नेहा की मां के साथ कुछ काम था। उसने उसे बुलाकर लाने के लिए कहा। मैंने मां से कहा भी कि वो घर पर नहीं है तो मां को लगा कि मैं काम के डर से बहाने बना रहा हूं। मां की नाराजगी को देखते हुए मुझे स्नेहा के घर जाना पड़ा। वहां पंहुचकर मैं बस इतना ही पूछ पाया था कि मम्मी घर पर है ? वह टूट पड़ी तुम्हें तो बस मुझे छेडऩे का बहाना चाहिए। तुम्हें पता है न कि मम्मी घर पर नहीं है भैया भी बाहर गए हैं। मैं घर में अकेली हूं तो घुस आए। साफ साफ बताओ तुम चाहते क्या हो ? मैं उतनी भी सीधी नहीं हूं न जितना तुम समझते हो, किसी दिन चंडी का रूप दिखाऊंगी तो सब समझ आ जाएगा ! स्नेहा का यह व्यवहार मुझे हतप्रभ करने वाला था। मन में एक पल को आया कि मैं कह दूं, तुम्हें लग रहा है न कि मैं तुमसे फ्लर्ट कर रहा हूं, तो हां मैं कर रहा हंू। तुम्हें लगता है कि मैं तुमसे प्यार करता हूं तो करता हूं। तुम्हें जो लगता है तुम वो मान लो, तुम्हें जहां जिससे शिकायत करनी है तुम कर दो, मैं अपनी सफाई मेंं एक शब्द नहीं कहूंगा, तुम्हारी हर सजा मुझे मंजूर है। पर मैं कुछ कहने की स्थिति में भी कहां था, वह कहे जा रही थी और मैं ... मै एक बार में ही इतना टूट गया था कि तब सुन पाने की स्थिति में भी नहीं था...! मैं बिना कुछ कहे वापस घर आ गया। आंखे बंद कर लेटने की कोशिश की तो एक बार फिर स्नेहा का वही चेहरा घुमने लगा। बाहर निकला तो स्नेहा सामने थी, उसका सामना करने की हिम्मत मुझ में नहीं बची थी। 

 

सच कहूं तो मुझे उसका गुस्सा बिल्कुल भी बुरा नहीं लग रहा था बल्कि यह सोचकर मैं खुश था कि चलो उसने मुझे अपना तो माना क्योंकि लोग अपनों पर ही तो नाराज होते हैं, पर गुस्सा मुझे अपने आप पर आ रहा था कि क्यों मैंने उसके दिल को इतनी तकलीफ पंहुचाई कि ...! मैं घर में रहूंगा तो दिन में कई बार स्नेहा से मुलाकात होगी, हर बार मुझे देखते ही उसे फिर वही तकलीफ होगी। स्नेहा की तकलीफों के बारे में सोचते मेरे सिर में हलका हलका सा दर्द प्रारंभ हो गया था। जाग-जागकर कटती रातें अहसास कराती थी कि वो भी कितनी लम्बी है। बाहर निकलने की कोशिश करता तो मुझे देखते ही स्नेहा का मूड बिगड़ जाता, वापस घर आकर लेटने की कोशिश करता तो मां पास आकर पूछती, तबियत तो ठीक है ना...? मेरा दिमाग काम करना बंद करने लगा था। ऐसा लगने लगा था कि मैं वहां रहा तो फिर पागल हो जाऊंगा इसलिए एक रात मां को बिना बताए मैं घर से बाहर निकल आया जिससे स्नेहा की जिंदगी से दूर चला जाऊं...! इतनी दूर की मुझे देखना तो क्या मेरी आवाज भी उस तक ना पंहुच पाए, तब से मैं भागे जा रहा था, भागे जा रहा था... पर जितना उससे दूर भागने की कोशिश करता, लगता कि उसके और भी उतना पास आते जा रहा हूं। 

 

आधी रात बीत चुकी है, ट्रेन अभी भी पटरियों पर सरपट दौड़ रही है । स्नेहा की यादों से बचने एक बार फिर मैंने अपनी आंखे खोल ली है, अब मेरी नजरें ट्रेन की दीवार पर है, खाली पड़ी उस दीवार में भी स्नेहा की धुंधली सी तस्वीर नजर आने लगी है पर इस बार वह देवी की तरह नहीं दिख रही, उसने शायद दुल्हन का चोला पहन रखा है, वह मेरी ओर ही देख रही है, उलझे हुए बाल, चेहरे पर बढ़ी हुई दाढ़ी, शरीर में मैले कुचैले कपड़े, जैसे गली में कभी-कभी आता था न एक पागल...। स्नेहा की नजरों से बचने एक बार फिर मैंने अपनी आंखें मूंद ली है, ट्रेन रात के अंधेरे को भेदते अब भी पूरी रफ्तार से सरपट भागे जा रही है। 

 राजेश सिंह क्षत्री संपादक, 

छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस शिव मंदिर, 

नहर किनारे जांजगीर जिला जांजगीर चांपा छ.ग. 

पिन 495668, मो. 74894 05373


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