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नाच-गाना देवार लोगों का पेशा है साहब, उन्हें शिक्षा और रोजगार दो सजा नहीं

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संदर्भ: पांचवे दिन अपने घर पंहुची इलाहाबाद से लौटी गरीब बेटियां

राजेश सिंह क्षत्री/संपादक, दैनिक छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस
 कलेक्टोरेट में बैठे देवार जाति के लोग
 आखिरकार छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस और मीडिया के अन्य साथियों के हस्तक्षेप के बाद इलाहाबाद से लौटी जांजगीर-चांपा जिले की तीनों बेटियां शुक्रवार की देर रात को अपने परिजनों के पास वापस लौट सकी। नाचने गाने के लिए अपने राज्य की सीमा से परे दूर इलाहाबाद जाने के लिए इन बेटियों की आलोचना से पहले इनके वहां जाने की पड़ताल और वापस लौटने के बाद हुई दिक्कतों की बातें कर लें तो ज्यादा बेहतर होगा। जांजगीर-चांपा जिले की ये बेटियां मानव तस्करी की शिकार नहीं हुई और न ही उन्होंने तथा उनके परिजनो ने मानव तस्करी अथवा उनसे देह व्यापार कराए जाने की शिकायत की है, जिले की ये बेटियां देवार जाति की है। देवार जाति के इन लोगों की आजीविका कैसे चलती है, इन लड़कियों में से एक की मां ने एक ही सांस में सारी बातें यह कहते हुए स्पष्ट कर दी कि साहब हम लोगों का तो पेसा ही नाच-गाकर अपना और अपने परिवार का पेट पालने की रही है, हमारे समाज के लोग गांव-गांव शहर-शहर जाकर गोदना गोदते थे, सुपा टुकना बनाते थे। गौर करें मशीनी युग में आज गोदना भी लोग इन देवार लोगों से नहीं गुदवाते मशीन से टेटू बनवाते हैं। नाचा-गम्मत जैसे छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर टीवी, विडियो के आने के बाद से ही इतिहास की बातें हो गई है तो सूपा, टुकना पर प्लास्टिक के सामान भारी पड़ रहे हैं। ऐसे में इस समाज के अशिक्षित लोगांे का मुख्य पेसा भीख मांगकर जीवन यापन करना और सुअर चराना ही रह गया है। ऐसे में यदि उनका ही कोई रिश्तेदार (जिले से गई तीनों लड़कियों का शेरू फूफा और मौसा है) शादी-ब्याह का सीजन शुरू होने से पहले उन्हें नाच गाने के लिए लेकर जाए और सीजन समाप्त होने के बाद सकुशल घर तक छोड़ दे तो उसमें इन बेटियों का क्या दोष है। पिछले कई वर्षो से दर्जनों बेटियां शेरू के साथ जाकर वापस लौट चुकी है वहीं इन बेटियों के अनुसार भी उन्हें इलाहाबाद से पुलिस ने वापस नहीं लाया है बल्कि वो अपने दम पर वापस अपने घर लौट चुके थे जहां से उठाकर पुलिस ने उन्हें बाल कल्याण समिति के हवाले कर दिया था।
‘‘भारत डिस्कव्हरी’’ में देवार जाति के संबंध में उल्लेख है कि देवार छत्तीसगढ़ की भ्रमणशील, घुमंतू जाति है। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध देवार लोकगीत इसी जाति के लोगों द्वारा गाये जाते हैं। देवार अधिकांशतः यहाँ-वहाँ घूमने वाली भ्रमणशील जाति है। संभवतः इसीलिए इनके गीतों में रोचकता दिखाई देती है। इस जाति के लोगों के बारे में अनेकों कहानियाँ प्रचलित हैं, जैसे एक कहानी में कहा जाता है कि देवार जाति के लोग गोंड राजाओं के दरबार में गाया करते थे। किसी कारणवश इन्हें राजदरबार से निकाल दिया गया और तब से घुमंतू जीवन अपनाकर ये कभी इधर तो कभी उधर घूमते रहते हैं। जिन्दगी को और नजदीक से देखते हुए गीत रचते हैं, नृत्य करते हैं। इनके गीतों में संघर्ष, आनन्द और मस्ती का भाव है। रेखा देवार तथा बद्री सिंह कटारिया प्रमुख देवार गीत गायकों में से है। देवार लोगों द्वारा गाये जाने वाले गीत रुजू, ठुंगरु, मांदर के साथ गाये जाते हैं। गीत मौखिक परम्परा पर आधारित होते हैं। बेटियों को उनके घर से उठाकर बाल कल्याण विभाग के अधिकारियों के सुपुर्द कर दिए जाने के बाद सबसे बड़ा संकट इनके माता-पिता को अपने आपको इनके माता-पिता साबित करने में हो रही थी क्योंकि स्कूल का मुख इन बेटियों ने कभी देखा नहीं है तो शासन की योजनाओं की पंहुच इनसे कोसो दूर है, और तो और बेहद गरीब तबके के होने के बाद भी इनको सही तरीके से पीडीएस का सस्ता चांवल तक नहीं मिल पा रहा है। क्योकि इनके मुखिया के पास तो कार्ड है लेकिन उनमें इन बेटियों का नाम ही दर्ज नहीं है। पहले एक राशन कार्ड में पैंतीस किलो चांवल मिलता था लेकिन अब तो प्रति सदस्य सात किलो चांवल दिया जा रहा है और जब इनका नाम ही राशन कार्ड में दर्ज नहीं है तो फिर इन्हें चांवल मिलने का सवाल ही नहीं है। ‘‘दसमत कैना’’ में रमाकांत श्रीवास्तव की पंक्तियों को इनकी निरक्षरता के संबंध में समझा जा सकता है। दसमत कैना की कथा देवार गायन परंपरा की अचूक पहचान हैं। यह गाथा पीढ़ी दर पीढ़ी देवार गायक गाते रहे हैं। अन्य जाति के लोक कलाकारों की तुलना में देवार कलाकार नितांत निरक्षर रहे हैं और उनका उच्चारण भी छत्तीसगढ़ की अन्य जातियों के कलाकारों से भिन्न रहा है। देवार जनजाति का अध्ययन करने वालों ने उन्हें स्थानों के आधार पर वर्गीकृत करते हुए यह सूचित किया है कि रायपुरिया देवारों का नाटय सारंगी और रतनपुरिया देवारों का वाद्य ढुंगरु कहलाता था। इस वाद्य को रुंझू वाद्य भी कहा जाता है। यह वाद्य गज (हाथा) से बजाया जाता है। इस वाद्य की संगत के कारण विशेष प्रकार का सुर लगाये बिना देवारों की गायन पध्दति से न्याय नहीं किया जा सकता। घुमन्तू जाति होने के कारण कथा के पाठ में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। ‘‘लोक कथागायन और परिवर्तन का दौर’’ में रमाकांत श्रीवास्तव इनके नाचने-गाने पर लिखते हैं, देवार जाति की स्त्रियां गायन में अपने पुरुषों की संगिनी थीं। नृत्य, गान उनका जातिगत गुण था फिर भी सारंगी पर कथागायन का कार्य अधिकतर पुरुष ही करते थे किन्तु स्त्रियां भी सहज रुप से इस कला को आत्मसात करती थी। यही कारण है कि स्मृतिलोप के इस दौर में कथागायन की देवार कला आज कुकुसदा की रेखा देवार तथा कुछ अन्य कलाकारों के पास विद्यमान है।
‘‘देवार गीत म संस्कृति के महक’’ इस छत्तीसगढ़ी आलेख में देवचंद बंजारे देवार जाति के संबंध में सारी बातें स्पष्ट कर देते हैं।  देवचंद बंजारे इसमें लिखते हैं कि ‘‘देवार छत्तीसगढ़ म घुमक्कड़ जाति आवय ये मन ह कोनो जगा म खाम गाड़ के नइ राहय। घुमक्कड़ परम्परा अउ संगीत नाचा के धरोहर ह जिनगी म परान बरोबर जुरे हे। गरीबी अनपढ़ अउ अंधियारी जिनगी के दुख पीरा ल भोगत हे। देवार मन ह अपन लोक गीत के सांस्कृतिक पहचान ल विदेशी डिंगवा गीत म गवां डारिन अउ पेट बिकाली म भुलावत हे  भटरी के समान घुमइया अउ एक जगा ले दूसर जगा म उसलत बसत रहिथे। एतिहासिक पन्ना म राजा कल्याण साय के बेरा म देवार जाति के जनम ल माने गेहे। जउन ह मुगल शासक शाहजहाँ के जमाना के रहिन हे। कतको देवार मन ह अपन ल गोपाल राय अउ हीरा खाम क्षत्रिय वंश के मानथे। देवार गीत म अइसन गोठ हा समाये हे। गाय पेट के गोंड गौरहा। देव। पेट म देवार। ये देवार गोंड राजा अउ ऊंखर शासन काल से अब्बड़ परभावित रिहिस। ऊंखर दरबार म बिकट बढ़ाई करत रिहिस। अइसन लगथे कि कोनो गलती म दण्ड या राजद्रोही के दोष म राजदरबार ले बाहर कर दिस होहि। देवार अपन जाति के महिमा ल बखान गीत म करत हे ।
चिरई म सुन्दर रे पतरेंगवा 
सांप सुन्दर मनिहार।
राजा सुन्दर गोंड रे राजा।
जात सुन्दर देवार।
     दूसर विद्वान सुशील यदु कहिथे, देवार जात के परमुख तेलासी - देवार जात के जनम मानत हे, देवी देवता मन के किरपा म उंखर जात के नाम देवार होईस। उंखर पुरखा पानाबरस राजू (गीदम) ले आय हवय अउ छत्तीसगढ़ म कई ठन जघा म खरसिया, चन्द्रपुर, कवर्धा, नांदगांव, दुर्ग, पिपरिया आन जघा म घलो छरियाय हवय। आज शहर नगर म देवार डेरा के ठिकाना नइ हे। चिरहा भोगरा अउ छिदिर बिदिर छरियाय हवय अउ नइ लगे लोक कलाकार होहि चिरहा फ टहा अउ मंइला ह पतलूंग ल पहिरे रहिथे। अलकरहा झलक हे अनुभव होथे कि गरीबी अशिक्षा के पर्रा म जिनगी पहावत हे घुमन्तु जिनगी।’’ समाज में देवार जाति के लोगों की खस्ताहाल स्थिति पर कटाक्ष करते हुए देवचंद बंजारे आगे लिखते हैं, देवार जाति ल शासन ह अनुसूचित जनजाति म आरक्षण (सुरक्षित) दे हवय फेर एकोझन मन लाभ नई पा सकिन। बिकास के रद्दा ह कई कोस दूर हवय। देवार जाति म साक्षरता ह बहुत कम हे। देवार अपन समाज ल सभ्य सुसंस्कारित करे बर बीड़ा उठाये के पहली रद्दा म भटकगे। पेट के खातिर दर-दर भटकते सुरा पालना, बंदर नचाना, देवारिन मन के नाच अउ गांव-गांव म किंजर के गोदना गोदत जिनगी चलाथे। गोदना गोदय के परम्परा ह बंद होय के कगार म आ गेहे।’’ देवार लोगों के आजीविका के विषय में देवचंद बंजारे लिखते हैं, ‘‘नोनी पीला मन ह गोदना गोदने अउ रीठा बेचने का काम करत हे। दिन ह बदलत हवय अउ अपन धंधा म रूचि नइ हे लोगन मन गोदना ल पसंद  नई करे। देवार समाज म आय के साधन ह नइहे, मरद ह सारंगी बजाकर धंधा करथे। इही ह सामाजिक अउ धन आय के साधन म शामिल हे । माईलोगीन हा कागज, झिल्ली, प्लास्टिक बिनकर पेट पालथे। मरद ह कबाड़ी के धंधा करके आघू बढ़त हवय।’’ नाच-गाने में देवार लोगों की प्रवीणता के बारे में देवचंद बंजारे लिखते हैं, ‘‘देवार छत्तीसगढ़ के बसंती अउ पदमा देवार परमुख कलाकार रिहिस हे ऊंखर गाये गीत म गोंडवानी, कर्णदानी, पलवानी, केंवटीन राउत के गीत, नगेसर कन्या परमुख देवार गाथा म एके ठन आवय। इखर दशा बिगड़ गे अउ मांदर के संग औरत नृत्य करत लोगमन के मनोरंजन करत रिहिस। कलाकारी इखर धंधा रिहिस। बड़का-बड़का दाऊ मालगुजार मन ह मनोरंजन करे बर गाव ले जावत रिहिस। इखर जात म परसिध औरत कलाकार रिहिस हे जिकर नाव गैंदाबाई कलाकार बैलगाड़ी के चक्के में दीया जला के नाच करत रिहिस अउ एक्कीस लोटे ल एक के ऊपर एक रखकर आरे में नाचे के बिशेष दक्षता रिहिस। छत्तीसगढ़ी लोक गीत के रानी ददरिया ह देवार गीत म समाय हे। ददरिया ल देवार संस्कृति के परिणय घलो कहिथे अउ एला गाये बिना मन म जोस नइ आवय।’’ इस समाज के प्रमुख लोगों के बारे में देवचंद बंजारे लिखते हैं कि, ‘‘आज ले 50 साल पहलि बालकी अपने नृत्य अउ गाना गाये बर छत्तीसगढ़ म विख्यात रिहिस हे। इंखर जाति म फि दा बाई, किस्मत बाई देवार, बसंती अउ पदमा छत्तीसगढ़ के परमुख कलाकार रिहिस हे।’’
 देवार जाति की प्रसिद्ध
लोक गायिका रेखा देवार
स्वतंत्र पत्रकार अक्षय दुबे साथी देवार जाति के बारे में लिखते है, ‘‘जब मैं अपने बचपने को खंगालता हूँ तो आज भी कुछ धुंधली सी तस्वीरें किसी मोंटाज की तरह आँखों के सामने गुजरने लगती हैं। कभी मृदंग की थाप पर थिरकती हुई एक महिला दिखाई देती है, कभी उनके श्रृंगारिक गीतों के बोल कान में कुछ बुदबुदाने से लगते हैं, कभी गोदना (एक किस्म का टेंटू) गुदती एक बुढ़िया, कभी रीठा और सील-लोढ़ा बेचने के लिए गलियों में गीत अलापती उनकी टोलियाँ, तो कभी सारंगी या चिकारा बजाते उस बड़े बाबा के हाथों को निहार पाता हूँ जो शायद युगों-युगों से संगीत साधना में मग्न है।’’ इसी लेख में स्वतंत्र पत्रकार उनकी आज की स्थिति पर आगे लिखते हैं कि ‘‘गीत-संगीत तो केवल अब उनकी बूढ़ी आँखों और आवाजों में कैद है जो शायद कुछ सालों में दम तोड़ देगी। लेकिन मायूसी, तंगहाली और कूड़े के ढेर में रहने को विवश इन कलाकारों की वर्त्तमान पीढ़ियाँ अशिक्षा, मुफलिसी, बीमारियों से त्रस्त शासन के योजनाओं से दूर हाशिए पर हैं, कला का सरंक्षण तो छोड़िए, इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। वो बूढ़ी दादी सही बोलती है कि “नाचने गाने से अब खुशी नहीं मिलती।” दर-दर की ठोकरे खाते वे ‘देवार’ जाति के लोग अब संगीत से अलग-थलग और मुख्यधारा से कोसो दूर कचरे के ढेर में जीने के लिए विवश हैं।’’


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